shlovij - 18 - moksh sanyas (मोक्ष सन्यास) lyrics
intro:+
अन्तिम अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन के सभी प्रश्नों का उत्तर देने के साथ साथ गीता के लाभ बताएंगे, जय श्री कृष्ण
hook:+
हे,अर्जुन सुन, अन्तिम अध्याय, इस परमज्ञान का मुझसे तू।
verse १:+
सांसारिक जीवन को है त्यागना सन्यास
सभी कर्मों के फलो को त्यागना ही होता त्याग
कर्म खुद ही दोषयुक्त है त्यागने के योग्य
ऐसा कहते कुछ विद्वान, कुछ अपने अलग राग।
अर्जुन ने पूछा त्याग सन्यास में क्या फर्क?
उसी को समझाते हुए माधव दे रहे हैं तर्क
त्याग और सन्यास भी बंटा तीन ही प्रकार से
सुन अर्जुन पहले ध्यान से क्या लाभ का संदर्भ।
त्यागने नहीं चाहिए यज्ञ और दान, तप
खुद को करने को पवित्र होते यज्ञ,दान,तप
लेकिन इनके फल की इच्छा व आसक्ति त्याग दे
ऐसे कर्मों के फल की इच्छा मन में ना तू रख।
मोह के चलते कर्मों का त्याग तामस त्याग।
दे शरीर को जो कष्ट ऐसा त्याग राजस त्याग।
कर्मों से होने वाले फलों का जिसमें त्याग
वही त्याग असली अर्जुन सुनले सात्विक वो त्याग।।
त्यागी वही है जो कर्मों के फल का त्याग कर दे, अच्छा, बुरा या मिला हुआ, कर्मों का फल तीन प्रकार से मिलता है।
श्री कृष्ण सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिए सांख्य शास्त्र में कहे पाँच उपाय बता रहें हैं।
अधिष्ठान, कर्ता, चेष्टाएँ, साधन, व दैव ।।
verse २:+
अधिष्ठान यानि की शरीर, कर्ता + मन, साधन+ इन्द्रियां व चेष्टाएँ, दैव पांच कर्म।
कारण यहीं पांच, जिनके अधिभूत सारे
इनके द्वारा ही करता है, हर एक व्यक्ति अपने कर्म।
ज्ञानी है वही,जिसमें ना होती + मैं की भावना
कर्ता, करण, व क्रिया से होती कर्म की साधना
ज्ञान, कर्ता, कर्म तीनों के तीन ही प्रकार
ज्ञान सात्विक, जिसमें दिखे हर रूप में परमात्मा
राजसिक वो ज्ञान जिसमें होता ना समभाव
अलग अलग प्रकार से जो देखता हर प्राणी
ज्ञान ऐसा जिसमें सिर्फ अहम् की हो भावना
तामसिक वो ज्ञान, जो बिगाड़ता है वाणी।
भाँति इसी कर्म के प्रकार भी हैं तीन
हो जो शास्त्र अनुसार, वही सात्विक है कर्म
फल की इच्छा जिसमें, वही राजसिक है कर्म
बिना ज्ञान के जो हो, कहलाता तामसिक वो कर्म।।
hook:+
हे,अर्जुन सुन, अन्तिम अध्याय, इस परमज्ञान का मुझसे तू।
verse ३:+
ज्ञान कर्म जैसे ही कर्ता के भी प्रकार तीन
बुद्धि या धृति हर गुण के विभाजित विभाग तीन
जिसकी जैसी प्रवृत्ति वैसे ही उसके गुण
हर एक क्रिया की भाँति सुन अर्जुन, सुख के भी प्रकार तीन।
दुख का जिसमें अन्त ऐसा सुख कहलाता सात्विक
इन्द्रियों से प्राप्त जो होता वो सुख है राजसिक
विष के है समान ऐसा सुख जो मिले इन्द्रियों से
नींद व आलस जो प्राप्त, सुख है तामसिक।।
श्री कृष्ण कहते हैं पृथ्वी,आकाश व देवताओं में ऐसा कोई नहीं है जो इन तीन गुणों से भिन्न हो, हर किसी में ये तीन गुण होते हैं।
गुणों के आधार पर ही कर्मों के चार विभाग (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र) बांटे गए हैं, जिसके जो गुण उन्हीं के आधार पर स्वकर्म करने चाहिए।।
verse ४:+
अर्जुन तू क्षत्रिय है, और युद्ध तेरा कर्म
ना वश में अहंकार के आ, निभा अपना धर्म
बंधकर अपने मोह में ना फेर मुख तू युद्ध से
युद्ध ही स्वभाव है क्षत्रिय का जो कर्म।
कर्म अनुसार ही होते हैं सारे कार्य
और कर्म जिसके द्वारा होता वही होता ब्रहम
मुक्त हो जा मोह से और परम सिद्धि प्राप्त कर
ना पाने की रख चाह, तभी प्राप्त होगा ब्रहम।
सारे भावों को भूलकर हमें सुन अपने अंदर स्थित
दिव्य परमात्मा के आश्रय में जाना चाहिए
यही तरीका है पाने का परमधाम अर्जुन
दिव्य जो ज्ञान ये, समझ में तुझको आना चाहिए।
मेरे सारे कहे कर्मों का अनुसरण कर
ना कर अब शोक,मोह, युद्ध के इस चरण पर
कर दूंगा मुक्त मैं सम्पूर्ण पापों से, हे अर्जुन
सांसों को थाम, वश करले तू अंत:करण पर।।
hook:+
हे,अर्जुन सुन, अन्तिम अध्याय, इस परमज्ञान का मुझसे तू ×२
verse ५:+
श्री कृष्ण कहते हैं जो भी सच्चे भाव से गीता का अनुसरण कर औरों तक यह ज्ञान पहुंचाएगा वह मुझे प्रिय होगा, जो पुरुष इस गीता शास्त्र को पढ़ेगा उसे भी मैं ज्ञान के रूप में प्राप्त हो जाऊंगा, लेकिन जो मेरे स्वरूप से इंकार करता है, उसे ये ज्ञान नहीं देना चाहिए।।
आगे श्री कृष्ण अर्जुन से पूछते हैं + हे धनंजय तूने इस परमज्ञान को एकाग्रचित होकर सुना, क्या तेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हुआ?
अर्जुन कहते हैं + हे माधव आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, अब मैं संशयरहित होकर युद्ध करूंगा।।
दूसरी ओर इस संवाद को खत्म करते हुए संजय कहते हैं + हे धृतराष्ट्र, श्री व्यास जी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परमगोपनीय ज्ञान को प्राप्त किया है।
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